शिवपाल यादव को करीब लाकर वोट सहेजने में जुटे अखिलेश

शिवपाल यादव को करीब लाकर वोट सहेजने की कोशिश में जुटे अखिलेश, नए गठबंधन के संकेत

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल सिंह यादव को अपनी सरकार बनने पर कैबिनेट मंत्री बनाने और जसवंतनगर में उनके मुकाबले

किसी को न उतारने की बात कहकर यादव परिवार में एका की कोशिश कम बल्कि यादव परिवार के परंपरागत वोटों को सहेजने का जतन ज्यादा किया है।

हालांकि शिवपाल की तरफ से इस प्रस्ताव पर बहुत सकारात्मक रुख नहीं दिखाया गया है, लेकिन प्रदेश में भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए नए गठबंधनों के संकेत जरूर निकलने लगे हैं।

हालांकि इन गठबंधनों का स्वरूप और समीकरण किस तरह का होगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है।
अखिलेश का यह बयान और बसपा सुप्रीमो मायावती का प्रदेश अध्यक्ष को बदलना यह बताने के लिए पर्याप्त है

कि उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा विरोधी दलों में भविष्य को लेकर अकुलाहट पैदा कर दी है।

नतीजतन सपा मुखिया पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह यादव के परंपरागत वोटों में बिखराव रोकना चाह रहे हैं

तो मायावती अति पिछड़ों को साथ जोड़कर आगे की सियासत करना चाहती हैं।
2017 के बाद से लगातार विफल ही रहे हैं

अखिलेश यादव के प्रयोग
दरअसल, विधानसभा चुनाव 2017 के दौरान यादव परिवार में विघटन के बाद से अखिलेश के सियासी प्रयोग लगातार नाकाम रहे हैं।

2017 में 50 से कम सीटों पर सिमटी सपा के रणनीतिकारों को एहसास हो गया था कि घर की फूट ने समाजवादी पार्टी के सियासी वजूद के लिए संकट पैदा करना शुरू कर दिया। पर, घर में एका की कोशिश असफल रही।

अलबत्ता अखिलेश ने लोकसभा चुनाव में धुर विरोधी बसपा के साथ गठबंधन कर शिवपाल के चलते वोटों के हुए नुकसान की भरपाई का प्रयास किया।

इसके लिए उन्होंने मायावती को मुलायम सिंह यादव के साथ चुनावी मंच पर एक साथ खड़ा तक किया।

पत्नी डिम्पल से मायावती के पैर छुआकर सियासत में भावनात्मक रिश्तेदारी का रस भी घोला।

शायद वह सोच रहे थे कि सपा-बसपा के गठबंधन से मुस्लिमों का एकमुश्त वोट भाजपा के खिलाफ साइकिल व हाथी को मिलेगा।

इसमें पिछड़ों में लगभग 20 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले यादव और अनुसूचित जाति में लगभग 55 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले जाटव का वोट जुड़कर उनकी जीत का रास्ता मजबूत कर देगा।

हालांकि ऐसा नहीं हुआ। उल्टे यादव परिवार की फिरोजाबाद, कन्नौज और बदायूं जैसी मजबूत सीटें भी साइकिल के कब्जे से निकलकर कमल के पास चली गईं।

फिरोजाबाद में सपा की पराजय का कारण खुद शिवपाल बने तो बदायूं, कन्नौज में सपा की हार का कारण भी यादव परिवार में फूट ही रही।

कन्नौज में प्रसपा प्रत्याशी ने वापस ले लिया था नाम
कन्नौज में प्रसपा ने प्रत्याशी वापस ले लिया था और बदायूं में शिवपाल प्रचार के लिए भी नहीं गए। कुछ और सीटों पर भी प्रसपा ही सपा की शिकस्त का कारण बनी।

अभी हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने फिर वही कहानी दोहराई। तमाम कोशिशों के बावजूद सपा जैसे-तैसे सिर्फ जौनपुर की मल्हनी सीट बचा पाई।

गौरतलब है कि मल्हनी से सपा विधायक रहे स्व. पारसनाथ यादव से निजी रिश्तों के चलते शिवपाल यादव ने खुद उनके घर जाकर भी एक तरह से राजनीतिक संदेश दिया था।


इसलिए गठबंधन व वोट सहेजने के संकेत
शिवपाल कह रहे हैं कि उन्हें पहले अपनी पार्टी और संगठन को मजबूत करना है और फिर भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकना है।

उनकी पार्टी के प्रवक्ता दीपक मिश्र और खुलकर कहते हैं कि विलय का तो कोई औचित्य ही नहीं है। अलबत्ता भाजपा को रोकने के लिए सम्मानजनक गठबंधन हो सकता है।

वह सपा से होगा या अन्य किसी दल से, यह तो उस समय के समीकरण व परिस्थितियां तय करेंगी।

जाहिर है अखिलेश भी समझ रहे हैं कि चाचा उनके नेतृत्व में अब सपा में काम करने से रहे लेकिन इसके बावजूद वह चाह रहे हैं

कि ऐसी सूरत निकल आए कि सपा का परंपरागत वोट न बंटे। इसीलिए उन्होंने यह पहल की है।

राजनीति शास्त्री प्रो. एसके द्विवेदी का भी मानना है कि सियासत में अपना कद बनाए रखने के लिए न सिर्फ वोट का बंटवारा रोकना होगा

बल्कि भाजपा के खिलाफ प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में अपने सियासी वजूद को मजबूत बनाने में जुटे दलों को भी अपने साथ लाकर राजनीतिक समीकरण दुरुस्त करने होंगे।

इसकी पहल उन्होंने दिवाली पर कर दी है।

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