गुरु तेग़ बहादुर जी को “हिंद दी चादर “ भी कहा जाता है। उन्होंने अपना बलिदान देकर हिंदुओं को आततायी औरंगज़ेब के अत्याचारों से बचाया।
यह शुरुआत उस समय हुई जब औरंगज़ेब कश्मीरी पंडितो को ज़बरदस्ती मुसलमान बना रहा था।पंडित कृपा राम की अगुवाई में 500 कश्मीरी पंडितों का जत्था गुरु जी की सहायता के लिए आनन्दपुर साहिब आया, उन्होंने अपने नववर्षीय पुत्र गोविन्द राय से विचार विमर्श करके औरंजेब को संदेश भेजवाया की यदि वह गुरु को इस्लाम स्वीकार करवा सकता है , तो सभी हिंदू इस्लाम क़बूल कर लेंगें।
गुरु को उनके तीन शिष्यों भाई सती दास, मती दास और दयाला जी के साथ आगरा के गुरुद्वारा से गिरफ़्तार करके चाँदनी चौक दिल्ली लाया गया और कठोर यातनायें दी गयी। उनके सामने उनके एक शिष्य को सार्वजनिकरूप से आरे से चिरवा दिया। दूसरे शिष्य को कड़ाह में उबाल दिया गया। तीसरे शिष्य को रुई में लपेट कर आग लगा दिया गया। इन सब के बाद भी गुरु तेग़ बहादुर जी बिचलित नहीं हुए, तो 24 नवम्बर 1675 को उनका सिर कलम कर दिया गया।गुरु साहिब ने अपना बलिदान देकर हिंदुओं की रक्षा की और “ हिंद दीं चादर” कहलाये।
गुरु के शव को अपमान से बचाने के लिए लखी शाह बंजारा ने अपने हज़ारों जानवरों के साथ हमला बोल दिया और गुरु जी के पार्थिव शरीर को अपने फूस के मकान में रख कर आग लगा दिया और इस प्रकार उनका अंतिम संस्कार किया। आज उस स्थान पर रक़ाबगंज गुरुद्वारा है और लखी शाह बंजारा के नाम पर वहाँ सबसे बड़े हाल का नाम लखीशाह बंजारा हाल रखा गया। गुरु के बलिदान स्थल पर शीशगंज गुरुद्वारा बनाया गया।