कितना ‘सोशलÓ मीडिया
सामाजिक घृणा फैलाने वाली पोस्टों पर फेसबुक के कथित भेदभावपूर्ण रवैये को लेकर अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल के खुलासे के बाद तो हमारी आंखें खुल ही जानी चाहिए। हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब हिंसा और नफरत को लेकर फेसबुक के इस तरह के व्यवहार की शिकायत हो रही हो।

अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप के कथित भड़काऊ बयानों पर ट्विटर और फेसबुक के व्यवहार में अंतर को लेकर काफी विवाद हो चुका है। उससे पहले डेटा के दुरुपयोग और चुनावों में किसी एक पक्ष की ओर झुककर जनमत को प्रभावित करने के आरोप फेसबुक पर कई देशों में लगे हैं। लेकिन भारत में सत्तापक्ष के कुछ नेताओं से उसकी मिलीभगत के आरोप इतनी स्पष्टता से सामने आने का यह पहला मौका है।
अखबार की रिपोर्ट में साफ कहा गया कि तेलंगाना के बीजेपी विधायक टी राजा सिंह की नफरत फैलाने वाली पोस्ट पर फेसबुक ने कोई कार्रवाई इसलिए नहीं की कि भारत में फेसबुक की टॉप पब्लिक पॉलिसी एक्जीक्युटिव के मुताबिक, बीजेपी नेताओं की पोस्ट हटाने का कंपनी के व्यापारिक हितों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इस रिपोर्ट के बाद कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाना स्वाभाविक है। जो बात स्वाभाविक नहीं है, वह यह कि बीजेपी और सरकार की पूरी प्रतिक्रिया कांग्रेस और राहुल गांधी को जवाब देने तक सिमट गई।
केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी राहुल गांधी को लूजर बताते हुए मामले को अपनी तरफ से खत्म कर दिया। लेकिन अमेरिकी अखबार की रिपोर्ट से उभरी चिंताओं का संबंध सिर्फ राहुल गांधी या कांग्रेस से तो नहीं है। फेसबुक और वॉट्सऐप की पहुंच आज हर व्यक्ति तक हो गई है। एक ही कंपनी द्वारा संचालित सोशल मीडिया के इन दोनों ब्रैंड्स के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है। इससे भारतीय लोकतंत्र के लिए संभावित नुकसान को देखते हुए सरकार इनकी करतूतों से उदासीन नहीं रह सकती।
सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियां यहां किस तरह से और कितनी कमाई कर रही हैं, यह पूरे देश की नजर में होना ही चाहिए। उस पर ये नियमानुसार टैक्स दे रही हैं या नहीं, और यहां से जुटाए जा रहे डेटा का वे क्या कर रही हैं, यह भी देखा जाना चाहिए। इन जानकारियों के बल पर ही सुनिश्चित किया जा सकेगा कि घर-घर अपनी पहुंच के जरिए ये भारतीय समाज को कोई बड़ा नुकसान न पहुंचाएं।
समाज में नफरत फैलाने में कुछ भागीदारी अगर सत्तारूढ़ दल के इक्का-दुक्का नेताओं की भी पाई जाती है तो सरकार की जवाबदेही और बढ़ जाएगी। अच्छा है कि आईटी से जुड़ी संसदीय समिति ने इस मसले को गंभीरता से लेते हुए फेसबुक को सम्मन भेजने की बात कही है। सरकार के सभी संबंधित विभागों को इस मामले में पूरी तत्परता से सक्रिय होकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सोशल मीडिया कंपनियां भारत में सामाजिक टकराव को अपनी आमदनी का जरिया न बनाएं और कोई भी राजनीतिक दल जनमत को तोडऩे-मरोडऩे में उनका बेजा फायदा न उठाए।